धर्म सिद्धांत - भक्ति पथ


आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद नम भास्कर |
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमस्तु ते ||

हे आदिदेव (प्रथम देव) आपको नमस्कार है, हे भास्कर (चमकने वाले), हे दिवाकर (दिन के निर्माता), हे प्रभाकर (प्रकाश के निर्माता), आपको मेरा नमस्कार है।

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ओंकार के अवयवों का नाम है–अ, उ, म, बिन्दु, अर्धचन्द्र।  शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।  अकार सतोगुण को, उकार रजोगुण को, मकार तमोगुण को तथा अर्धचन्द्र-बिन्दु स्वयं ईश्वर का प्रतीक है। ॐ के ऊपर बिंदी तीनों गुणों से परे या तीनों में समानता की निर्गुणता की प्रतीक है। भूत, वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ( ॐ) ही है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ॐ ही कहा गया है। ओम ॐ के जाप से शारीरिक ऊर्जा को आध्यात्मिक ऊर्जा से, और उस आध्यात्मिक ऊर्जा को ब्रह्मांड ऊर्जा से जोड़ जीव अस्तित्व के परम आनंद को प्राप्त कर सकता है। "नासा के द्वारा सूर्य से रिकॉर्ड की गई आवाज भारतीय मंत्र ' ॐ ' का था।"

1. ब्रह्म और आत्मा 

सुर्य ब्रह्म का बीज रुप हैं। मानव आत्मा ब्रह्म हैं। आत्मा अक्षर की दृष्टि से  है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। प्रारब्ध के अनुसार आत्मा का पाँच श्रेणीयाँ हैं 1.) परम आत्मा( परमात्मा), 2.) महा आत्मा ( महात्मा यानि देवो के देव, भगवान ), 3.) दिव्य आत्मा ( देवआत्मा यानि देवता ), 4.) भुत आत्मा  5.) दुष्ट आत्मा। ईश्वर एक परम और सर्वोच्च आत्मा ( परमात्मा - सुप्रेम गॉड) है, जो चैतन्य से युक्त है और विश्व का सृष्टा और शासक है।

2. परमात्मा या ईश्वर :-

परमात्मा का तेजपुंज ब्रह्म और ब्रह्म का बीज रुप सुर्य हैं। उदय के पूर्व सूर्य को सवितुर कहते हैं, जबकि उदय के पश्चात 'सूर्य। ईश्वर का एक नाम उदितनारायण भी हैं। परमपिता(सुप्रेम गॉड) सुर्य ही अनेक रूपों में जाने जाते हैं जैसे ईश्वर, अल्लाह, यहोवा, एलोहीम इत्यादी। ईश्वर के लिए ना कोई बड़ा हैँ, ना ही कोई छोटा चाहे मानव हो या आत्मा या जिव-जंतु। परमात्मा को खोजने का माध्यम अंतर्मन य अंतरात्मा हैं। परमात्मा को अंतर्मन से सुमिरन करने पर आत्म साक्षातकार होता हैं। मानव परब्रह्म की संतान हैं। 

निश्चय ही समस्त सृष्टि का ईश्वर सविता है।

सविता सर्वभूतानां सर्व भावश्च सूयते । स्रजनात्प्रेरणाच्चैव सविता तेनचोच्यते ।।

षुज्—प्राणिप्रसवे इत्यस्य वातोरेतद्रूपम् । सुनोति सूयते वा उत्पादयति चराचरं जगत् स, सविता सूर्यमण्डलान्तर्गत पुरुष ईश्वरः ।।

सविता यह रूप प्राणि उत्पन्न करने के अर्थ में पञ धातु से बना है जो चराचर जगत को उत्पन्न करता है उसका नाम सविता है और सविता देव सूर्य मण्डल के अन्तर्गत जो पुरुष है वह ईश्वर है।

मतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि । जीवन्ति वत्प्रत्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञानव तदूब्रह्मेति ।।

जिससे समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, और जिससे पालित होते हैं और जिसमें प्रवेश कर जाते हैं वह ब्रह्म है। अतः उसको तू पहचान। 

देवोऽयं भगवान्भानुरन्तर्यामी सनातनः ।

भगवान् सूर्य देव अन्तर्यामी तथा सनातन देव हैं।

सविता वै सर्वस्य प्रसविता अग्निः सवितारम् सर्वस्य प्रसवितारम् ।

सविता देव निश्चय सर्व भूतों के उत्पत्ति कारक हैं, सविता अग्नि को कहते हैं, अग्नि ही समस्त प्राणियों को उत्पन्न करता है।

ब्रह्मस्वरूप मुदये मध्याहनेतु महेश्वरम् |
सहं ध्यायेत्सदा विष्णुं त्रिमूर्तिं च दिवाकरम् ‖

प्रातःकाल में वे ब्रह्मस्वरूप धारण करते हैं; मध्याह्न में महेश्वर की भूमिका निभाते हैं तथा सायंकाल के समय वे साक्षात् भगवान विष्णु के स्वरूप होते हैं, इस प्रकार सूर्य की त्रिदेवीय महानता है।

3. भगवान  :- 

जब मानव ब्रह्म को अपने मन से जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म भगवान हो जाता हैं। जो समस्त प्राणियों की उत्पति, नाश, आवागवन तथा विद्या और अविद्या को जानता हैं, वह भगवान हैं,जैसे राम, हनुमान, कृष्णा, शंकर, शिव, विष्णु इत्यादि। भगवान का स्त्रीलिंग भगवती हैं। 

नमः सवित्रे जगदेक चक्षुषे जगत्प्रसूतिस्थिति नाश हेतवे । त्रयी मयाय त्रिगुणात्म धारणे विंरंच नारायण शंकरात्यमने ।।

हे जगत के एकमात्र नेत्र, जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार के कारण, तीनों रूपों  ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के भण्डार, स्वयं में स्थित तीनों गुणों के रक्षक, हे सूर्य! आपको नमस्कार है।

4. अधर्म, धर्म और धर्मात्मा  :- 

अधर्म - जिस कर्म को त्याग देना उचीत हो वह अधर्म हैं या जो कर्म अपने स्वभाव मे अपनाने योग्य नही हो। 

धर्म - जिसका अर्थ है 'धारण करने योग्य'. जो आचरण, विचार, उसूल, मूल्य, और सिद्धांत धारण करने योग्य हों, उसे धर्म कहते हैं। जो कर्म को धारण करने योग्य हो वह धर्म हैं। या जिसे हम अपने स्वभाव में अपनाएँ या जिस काम के लिये हम बने हैं वैसे ही आचरण करें। जो आत्मा को परमात्मा से मिलाता है।  

धर्मात्मा - जिसकी धर्म में प्रवृति हो या जो धर्म के अनुसार आचरण करता हो। धर्मात्मा वह हैं जो एक परमात्मा के प्रती समर्पित हैं। भजन का अधिकार दुराचारी तक को हैं। 

5. सनातन, सत्ता और शासन  :-

आत्मिकसत्ता का शासन प्रणाली एक बहुत ही जटिल शासन प्रणाली हैं। आत्मिक शासन प्रणाली में सत्ताधारी आत्मा, भगवान, देवी-देवता अगर मानव जिव कल्याण, सुरक्षा और सहयोग का ध्यान नही रखा और हिंशक, वासनात्मक, राजसी तथा तामसी कार्य में ही संलिप्त रहा तो फिर उसे भी नरक भोगना पड़ता हैं। ब्रह्माण्डपति परमपिता सूर्यदेव हैं। भुलोक प्रधान भगवान ब्रह्म्देव हैं। 

6सनातन धर्म :-

इश्वर या परमात्मा से मिलानेवाली क्रिया सनातन धर्म हैं। सनातन धर्म एक ईश्वरीय धर्म हैं। मुख्य रूप से केवल ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले एकमात्र परमपिता परमेश्वर को पुजन, ध्यान और जाप करनेवाले सनातनी हैं।

7.  सत्य और  गुण :- 

सत्यम सुर्यम सुंदरम! सत्य ही सुर्य हैं और सुर्य ही सुंदर हैं। एक ॐ ही सत्य नाम है। आत्मा हीं सत्य हैं और सत्य ही सनातन हैं। सतकर्म, धर्माचरन, सुविचार, सुदॄष्टिमर्यादा और सहकार्यता का पालन नही करने पर मानव पाप से ग्रसित हो जता हैं और नरकयोनि ( जिव-जंतु, पक्षी, जानवर ) का भागी बनता हैं। 

गुण तीन है 1) सत 2) रज 3) तम। सत का अर्थ चेतना या ऊर्जा, रज का अर्थ धूल या गर्द या पदार्थ और तम का अर्थ अंधकार, आवरण, माया। ऊर्जा, पदार्थ और माया के मिश्रण से जिव का निर्माण हुआ हैं।

8. ज्ञान :-

आध्यात्मिक दॄष्टि से परमात्मा से प्रत्येक्श जानकारी ज्ञान हैं। 

9. योग :-

साधना के द्वारा परमात्मा दर्शन और स्पर्श के लिये सुलभ मार्ग योग हैं।

10. कर्म और ज्ञानयोग :-

कर्म तीन प्रकार के हैं 1.)  क्रियावान ( अच्छा और बुरा )  2.) संचित ( अच्छे और बुरे क्रिया के द्वारा जमा सात्विक, राजसी और तामसी कर्म )  3.) प्रारब्ध (भाग्य, जो अगले जन्म मे जमा किये हुए कर्मो से ये तय होगा कि आत्मा किस योनि मे जन्म लेगा )। जो मानव परमात्मा का साधना, ध्यान और जाप नही करता हैं और काम, लोभ, मोह, हिंसा, अपराध में ही संलिप्त रहता हैं, उसे आत्मिक दुनिया मे बहुत भटकना पड़ता हैं और बहुत ही करी सजा का पात्र बनता हैं। आराधना और भजन भी एक ही कर्म हैं। अपने पर निर्भर होकर कर्म में प्रव्रित होना ज्ञानयोग हैं। 

11. अवतार और पुनर्जन्म  :- 

सात्विक श्रद्धा, सत्यवचन, सतकर्म, सहकार्यता, अहिंसा, मानव और जीव कल्याण आदि सात्विक कर्मों के आधार पर मानव का मानव में अवतार होता हैं। लेकिन एक युग में सिर्फ एक ही बार युगपुरुष बनने का मौका मिलता हैं। पुनर्जन्म का अधिक्तम उम्र 300 सौ  वर्ष हैं। सामान्य स्थिति में वर्तमान जिवन दर के लगभग दोगुने जिवन दर पर पुनर्जन्म हो जाता हैं।   

 12. पाप और नरक :-

गलत कर्म, ठगी, हिंसा, हत्या, चोरी, डकैती, अत्याचार, व्यभिचार इत्यादि मे कम या अत्यधिक संलिप्तता के आधार पर लँगड़ा, अपाहिज, रोगी, किट-पतंग, जानवर, पक्छि इत्यादि में जन्म होता हैं। इसमे कम से कम उम्र तथा अकाल मृत्यु और दुख-दर्द का योग ज्यादा से ज्यादा रहता हैं। 

13. पुजनीय  :- 

एकमात्र परातत्व ब्रह्म(परमात्मा) ही पूजनीय हैं। सात्विक श्रद्धा वाले पुरुष देवताओं को पुजते हैं। राजसी पुरुष यक्ष और रक्षासों को पुजते हैं। तामसी पुरुष भुत-प्रेत को पुजते हैं। 

14. पुजा  :-

प्रती दिन कम से कम एक बार "ॐ सुर्याय नम:"  का ध्यान और जाप करें। जाप करने से मनुष्य को तनाव से मुक्ति मिलती है ; उदासी दूर होती है ; एकाग्रता बढ़ती है ; मन : शांति मिलती है और व्यक्ति आनंद का अनुभव करता है।

15. मोक्ष :-

योग, ध्यान या जाप के द्वारा आत्म साक्षातकार करना सर्वश्रेस्ट धर्म हैं। यहाँ आत्मसाक्षातकार मोक्ष का ही प्रयायवाची हैं। 

16. मुक्ति :-

जब कोई व्यक्ति अपने तन(शरिर) और मन(आत्मा) से आध्यात्मिक नियम(सत्ता और संविधान) का सत्यनिष्ठा, ईमानदारी से पालन करते हुए समस्त प्राणियों में आत्मा के द्वारा आत्मा को देखता हैं और प्रकृति, जिव-जंतु, पशु-पक्छि, एवम्‌ मनव कल्याण के लिये फल की चिंता किये बिना अपना कर्म करता हैं, वह परब्रह्म को(मुक्ति को) प्राप्त करता है। उसे परब्रह्म परमात्मा के ओर से पवित्र आत्मा, धर्मात्मा, महात्मा की उपाधी मिलती हैं।



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