पाप कर्म - Deviated from Divinity :-
देवत्व हमेशा अच्छाई , सुंदरता , उपकार, न्याय और अन्य सकारात्मक, सामाजिक-समर्थक गुणों का अर्थ रखता है। देवत्व प्राप्त करना इतना आसान नहीं जितना आप समझते हो। देवत्व की प्राप्ति के लिए आप में एकत्व भाव, रिजु: सरल(सज्जन), दयालुता, साधुता (शांतता), शुद्ध विचार, परोपकारिता, निग्रहवान और वैध्य आक्रामकता का होना जरूरी है। जब आप इन सभी गुणों का श्रद्धापूर्वक पालन करते है तब आप मानव रूप में दिव्य आत्मा यानी देवता कहलाओगे। पर अगर आपने इस प्रकार के गुणों का अभाव हैं तो आपको मानव रूपी देवता नहीं कही जा सकती। जितना देवत्व मानव जीवन के लिए सार्थक है, उससे कही अधिक अध्यात्मिक देवता के लिए बहुआयामी और व्यापक है। अगर हम एक अध्यात्मिक देवता में देवत्व की बात करें तो देवता में दिव्यता, शुद्ध विचार, सौम्यता, अंतर्ज्ञान, शांतता, त्रिआयामी सोच , क्रियाशीलता, वैध्य आक्रामकता और क्षमावान, रिजु: सरल, निग्रहवान(मन औरइन्द्रियों का वश में रखना) और सदाचार इत्यादि गुण रहना जरूरी है। पर अगर अध्यात्मिक दिव्य आत्मा में इस प्रकार के गुणों का अभाव है तो वो
आत्मा दिव्यआत्मा या महात्मा नही है बल्कि वो भूत·प्रेत आत्मा है। भूत आत्मा क्या है ? अगर कोई आत्मा अनुचित और निंदनीय व्यवहार, आचरण करे तो वह भूत·प्रेत आत्मा कही जाएगी। और इसीलिए धर्म हमें सिखाता है कि जो धारण करने योग्य हैं, वह धर्म है और जो धारण करने योग्य नहीं है, वह अधर्म हैं। इस प्रकार धर्म में दो तरह के आचरण
है, पहला सदाचार और दूसरा दुराचार। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार इन पँच पापों का त्याग ही सदाचार कहलाता है। और झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार इन पँच पापों का धारण करना ही दुराचार कहलाता है। जो अपरिवर्तनशील है, वही सत्य है और वह अपरिवर्तनशील तत्व नित्य, अनंत है वह कभी नहीं रुकता बल्कि निरंतर चलता रहता है मानो एक चक्र में हो: वर्षों का अंतहीन क्रम। जो शाश्वत है वह पूरे भविष्य में कायम रहेगा। और इसीलिए सत्य समस्त देहधारियों में आत्मा के रूप में विद्यमान रहता है। जो परिवर्तनशील हैं, वही असत्य है और परिवर्तनशील तत्व नित्य तथा अनंत नही है। जो शाश्वत नही है वह भविष्य में कायम नही रहेगा।
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